“शक्तिसंगमतन्त्र”
के सातवें पटल में भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों के परिमाण को बताया गया
है । इसी क्रम में कश्मीर के परिमाण को बताते हुए कहा गया है कि शारदापीठ
से प्रारम्भ करके कुङ्कुम (वर्तमान का कष्टवार या किश्तवाड) तक का प्रदेश
कश्मीर है ।
शारदामठमारभ्य कुङ्कुमाद्रितटान्तगः ।
तावत्कश्मीरदेशः स्यात् पञ्चाशद्योजनात्मकः ॥7.22॥
शारदापीठ
का भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के साथ एक पुरातन सम्बन्ध है । शारदा, भारत
की ज्ञान-परम्परा की अधिष्ठात्री देवी हैं । शारदा का ही दूसरा नाम
सरस्वती है । भारतीय साहित्य में सरस्वती का अंकन त्रिविध रूपों में मिलता
है:
एक पवित्र नदी के रूप में ।
नदी-देवी के रूप में जो संपन्नता व प्राचुर्यता प्रदान करती है ।
वाग्देवी के रूप में जो समस्त विद्याओं की अधिष्ठात्री देवी हैं ।
ॠग्वेद
में सरस्वती का पवित्र करने वाली, अन्न-धनादि प्रदान करने वाली, एवं सत्य
के प्रति प्रेरणा देने वाली देवी के रूप में वर्णन है ।
पावकाः नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती ।
यज्ञं वष्टु धियावसुः ॥
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् ।
यज्ञं दधे सरस्वती ॥ ॠग्वेद1.3.10-11
ॠग्वेद में सरस्वती का नदी रूप में भी वर्णन मिलता है ।
महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना ।
धियो विश्वा वि राजति ॥ ॠग्वेद
1.3.12
सरस्वती शब्द की निरुक्ति करते हुए यास्क कहते हैं – “सरस्वती, सर इति उदकनाम । सर्तेः । तद्वती ।’ (निरुक्त 9.26)
इस
व्याख्या से यह स्पष्ट हो जाता है कि सरस्वती का सार ’जल’ (सर) है जो
नित्य प्रवाहमान है । ब्राह्मण काल में, अपने सरस जलरूपी नित्य प्रवाहमानता
के कारण, सरस्वती का अंकन वाक् की अधिष्ठात्री देवी के रूप में मिलता है ।
सरस्वती एवं वाक् के अन्तःसम्बन्ध का प्रथम स्पष्ट सूत्र हमें “वाजसनेयी
संहिता” (19.12) में प्राप्त होता है जहाँ अश्विन देवता चिकित्सक के रूप
में एवं सरस्वती वाणी के रूप में स्थित होकर हव्य-सामग्री को इन्द्र के पास
ले जाती हैं ।
देवा यज्ञमतन्वत भेषजं भिषजाश्विना । वाचा सरस्वती भिषगिन्द्रायेन्द्रियाणि दधतः ॥ (वाजसनेयी संहिता 19.12)
पौराणिक
साक्ष्यों में, सती देवी के मृत शरीर से दाया हाथ कट कर इसी स्थान पर गिरा
था । महाशक्तिपीठों में शारदा पीठ का अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
शारदा पीठ, एक समय भारतीय विद्या का प्रमुख केन्द्र था।आचार्य शंकर भी अपनी
ज्ञान साधना के कुछ समय इस शारदा पीठ की पवित्र भूमि में व्यतीत किया था।
इस शारदा मन्दिर (निलय) में चारो दिशा में चार द्वार थे । आचार्य शंकर से
पूर्व अनेक विद्वान् तीन द्वारों (पश्चिम, पूर्व, एवं उत्तर दिशा) से इस
मन्दिर में प्रवेश कर चुके थे, किन्तु दक्षिण दिशा से किसी भी आचार्य का
प्रवेश नहीं हुआ था । “शंकरदिग्विजय” ग्रन्थ में हमें आचार्य शंकर के
शारदापीठ में प्रवेश करने एवं वहाँ के सर्वज्ञपीठ पर आसीन होने का उद्धरण
प्राप्त होते हैं ।
जम्बूद्वीपं शस्यतेऽस्यां पृथिव्यां तत्राप्ययेतन्मण्डलं भारताख्यम् ।
काश्मीराख्यं मण्डलं तत्र शस्तं यत्राऽऽस्तेऽसौ शारदा वागाधीशा ॥
द्वारैर्युक्तं माण्डपैस्तच्चतुर्भिर्देव्या गेहे यत्र सर्वज्ञपीठम् ।
यत्राऽऽरोहे सर्ववित्सज्जनानां नान्ये सर्वे यत्प्रवेष्टुं क्षमन्ते ॥
(शंकरदिग्विजय, 16 / 55-56)
ऐसा
माना जाता है कि आचार्य रामानुज (1017-1137) अपने “श्रीभाष्य” की रचना
करने से पूर्व बौधायन विरचित “ब्रह्मसूत्रवृत्ति” को देखा था जो उस समय
शारदापीठ के पुस्तकालय में उपलब्ध था ।
भगवद्बौधायनकृतां
विस्तीर्णां ब्रह्मसूत्रवृत्तिं पूर्वाचार्याः संचिक्षिपुः ।
तन्मतानुसारेण सूत्राक्षराणि व्याख्यास्यन्ते ॥ (श्रीभाष्य के प्रारम्भ
में) आचार्य प्रभाचन्द्र (1277-78) रचित “प्रभावकचरित” में आचार्य
हेमचन्द्र के विषय में एक रोचक कहानी मिलती है। आचार्य हेमचन्द्र, गुजरात
के राजा जयसिंह सिद्धराज (10 93-1143 के दरबार में एक प्रसिद्ध विद्वान् थे
। उज्जयिनी पर विजय प्राप्त कर राजा जयसिंह सिद्धराज वहाँ से अनेकों
पाण्डुलिपियाँ गुजरात लाये । उन पाण्डुलिपियों में एक पाण्डुलिपि व्याकरण
से सम्बन्धित थी एवं राजा भोजदेव द्वारा रचित थी । राजा जयसिंह ने भी अपने
राज्य में ऐसी ही व्याकरण ग्रन्थ की रचना की इच्छा व्यक्त की । इस कार्य को
पूरा करने का उत्तरदायित्व आचार्य हेमचन्द्र को दिया गया । आचार्य
हेमचन्द्र ने इस दायित्व को स्वीकार कर लिया । किन्तु हेमचन्द्र ने राजा
जयसिंह ने एक विचित्र माँग की । उन्होंने कहा कि एक नये व्याकरण ग्रन्थ की
रचना करने से पूर्व, वे पूर्व के आठ व्याकरण ग्रन्थों को देखना चाहते हैं
जो कश्मीर के शारदापीठ के पुस्तकालय में उपलब्ध हैं । राजा जयसिंह ने उन आठ
व्याकरण ग्रन्थों को लाने का आदेश दिया । उन्होंने उत्साह नाम के विद्वान्
को शारदापीठ भेजा । उत्साह शारदा पीठ पहुँचे एवं उन ग्रन्थों को माँगा ।
किंवन्दन्ती है कि उनकी प्रार्थना सुनकर स्वयं शारदा देवी प्रकट हुई एवं
अपने प्रिय हेमचन्द्र के लिए उन ग्रन्थों को दिया । पूर्व के आठ व्याकरण
ग्रन्थों को लेकर उत्साह गुजरात आये एवं आचार्य हेमचन्द्र को दे दिया । इन
आठ ग्रन्थों की सहायता से हेमचन्द्र ने “सिद्धहेमचन्द्र“ की रचना की जो
प्राकृत भाषा के व्याकरण का अद्वितीय ग्रन्थ है । ऐसा माना जाता है कि
“सिद्धहेमचन्द्र” की रचना करने के पश्चात् हेमचन्द्र ने इस ग्रन्थ की २०
प्रतियाँ शारदापीठ के पुस्तकालय में भेजीं। (Buhler, the life of
Hemacandra, pp-15-17)
इसी
शारदा पीठ से शारदालिपि का उद्भव हुआ जिससे आगे चलकर अनेक अन्य लिपियों
जैसे प्राचीन नागरी, गुरुमुखी, टाकरी आदि का विकास हुआ । शारदालिपि में
ॠग्वेद एवं अथर्ववेद प्राप्त होते हैं । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि
शारदा लिपि वैदिककालीन है।
कल्हण
के राजतरंगिणी के अनुसार, शारदा मन्दिर एक छोटी पहाडी (जिसे “भेडगिरि” कहा
जाता है) पर अवस्थित है जहाँ किशनगंगा नदी (जिसे पाकिस्तान में नीलम नदी
के नाम से जाना जाता है), मधुमती नदी, एवं चिलास (दक्षिण गिलगिट -
बाल्तीस्तान) से आ रही सरस्वती नदी एक दूसरे से मिलती हैं । आजकल इस स्थान
का नाम शरडी गाँव है ।
देवी भेडगिरेः शृङ्गे गङ्गोद्भेदशुचौ स्वयम् ।
सरोन्तर्दृश्यते यत्र हंसरूपा सरस्वती ॥ राजतरंगिणी 1.37
आलोक्य शारदां देवीं यत्र संप्राप्यते क्षणात् ।
तरंगिणी मधुमती वाणी च कविसेविता ॥ राजतरंगिणी १.३७
यह
शरडी गाँव नियन्त्रण रेखा से मात्र २५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है ।
श्रीनगर से इसकी दूरी ११२ किलोमीटर एवं बराहमूल (बारामूला) से ९६ किलोमीटर
है ।
“शारदामाहात्म्य
ग्रन्थ” की एक पाण्डुलिपि जो कि आँक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के बोडलियन
पुस्तकालय में सुरक्षित है, में शारदा देवी के माहात्म्य के विषय में
विस्तार से बताया गया है । इस ग्रन्थ में बताया गया है कि शारदा वन (जो आज
शरडी गाँव में है) में मुनि शाण्डिल्य को शारदा देवी के अद्भुत रूप के
दर्शन हुए थे । इस पाण्डुलिपि में शारदा की त्रिविध व्युत्पत्ति देते हुए
कहा गया है कि:
यस्मात् रक्ता च श्यामा च श्वेता च वर्णवर्णिनी । ततः प्रोक्ता पुराविद्भिः शारदानामनामतः ॥
शारीभूत्वा यतो देवी दृष्टा ते नात्र संशयः । ततः प्रोक्ता पुराविद्भिः शारदेति महेश्वरी ॥
शरत्काले यतो देवी पूजिता सर्वजन्तुभिः । ततः प्रोक्ता पुराविद्भिः शारदानामनामतः ॥
अर्थात्,
रक्त, श्याम व श्वेत वर्णों से युक्त, विविध रंगो से युक्त एवं शरत्काल
में पूजित होने के कारण इन्हें शारदा नाम से अभिहित किया जाता है । इन्हें
शारदा, नारदा एवं वाग्देवी के नाम से जाना जाता है ।
प्रसिद्ध
चीनी यात्री ह्वेनसांग (६३० ई.) ने इस शारदापीठ में अपने जीवन के दो वर्ष
व्यतीत किया था। मध्यकालीन अरब यात्री अलबरुनी (१०३० ई.) भी इस पीठ के
बारें में लिखते हुए कहता है कि
In
Inner Kashmir, about two or three day’s journey from the capital in the
direction of Bolor Mountains, there is a wooden idol called Śāradā
which is much venerated and frequented by pilgrims.
(Alberuni’s
India: an account of the religion, philosophy, literature, geography,
chronology, astronomy, customs, laws and astrology of India about 1030
A.D. Volume I, pp-117) by Edward C. Sachau
अबु
फजल अपनी “आइने-अकबरी” में इस शारदापीठ का वर्णन करते हुए प्रत्येक मास की
शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को इस पीठ में होने वाली अद्भुत घटना का उल्लेख
करता है ।
At
two days distance from Haehamun is the river named Padmati which flows
from the Dardu country. Gold is also found in this river. On its bank is
a stone temple called Sarada dedicated to ‘Durga’ and regarded with
great veneration. On every 8th of shukla paksha, it begins to shake and
produces the most extraordinary effect. (Ain-I-Akabari, volume 2,
pp-365)
भारतीय
सभ्यता व संस्कृति के प्रतीक इस शारदापीठ को मुस्लिम शासकों (विशेषकर
सिकन्दर बुतशिकन) ने खण्डित कर दिया । जैनुल आबदीन (१४२२ ई.) ने भी इस
शारदा पीठ का दर्शन एवं इसकी चमत्कारी घटनाओं का साक्षात्कार किया था। इसके
बाद महाराज गुलाब सिंह (१८४६ ई.) ने इस मन्दिर की देखरेख की व्यवस्था की
थी, किन्तु धीरे-धीरे यह पीठ उपेक्षित होता गया एवं वर्तमान स्थिति को
प्राप्त हुआ ।
शारदा
पीठ के बिना अखण्ड भारत की कल्पना अधूरी है । शारदापीठ, भारतीय सभ्यता व
संस्कृति की पहचान है । भारतीय संस्कृति में “विद्यारम्भ-संस्कार का
प्रारम्भ आज भी उत्तर दिशा की ओर मुख करके शारदा देवी की स्तुति से ही होता
है:
नमस्ते शारदे देवी काश्मीरपुरवासिनी ।
त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे ॥
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