गुरु गोरक्षनाथ एवं नाथ सन्तों का सन्त-साहित्य और समाज पर प्रभाव
भारतीय धर्म-संस्कृति की साधना पद्धतियों में नाथ
पंथ और इसके प्रवर्तक गुरु गोरक्षनाथ जी तथा अन्य नाथ सिद्धों का प्रमुख
स्थान है। गोरक्षनाथ जी ने योग-साधना के सैद्धान्तिक पक्ष को व्यावहारिक
रूप प्रदान कर जन सामान्य तक पहुंचाया। समग्र भारत ही नहीं, अपितु
सीमावर्ती देशों को अपनी योग-विभूति से तथा चरित्र, चिन्तन एवं व्यवहार से
बड़ी गहराई तक प्रभावित करने वाले अग्रगण्य महायोगी गुरु गोरक्षनाथ जी ही
थे। धार्मिक मानव उन्हें साक्षात् शिव स्वरूप ही स्वीकार करता है। सच्चा
आध्यात्मिक जीवन जीने की प्रेरणा देने वाला गोरक्षनाथ जी का जीवन चरित्र
प्राचीन काल से ही प्रचलित किम्वदन्तियों, कथाओं, चमत्कारों, विश्वासों तथा
उनकी रचनाओं के माध्यम से प्राप्त होता है।
भारतीय धर्म-साधक-सम्प्रदायों की पतनोन्मुख तथा विकृत स्थिति के
समय वामाचारी तांत्रिक साधना जोरों पर थी। पंचमकारों का खुल कर प्रयोग हो
रहा था। भोगवाद अपनी चरम सीमा पर था। साधन सम्प्रदायों में आचार सम्बन्धी
नियमों का पालन नहीं हो पा रहा था। वामाचार-पंचमकार के परम परिशुद्ध और
साधनोहितकारी तत्वों का दुरुपयोग हो रहा है। ऐसे संकटापन्न समय में
गोरक्षनाथ जी ने भारतीय संस्कृति, धर्म, समाज एवं साधनों के उद्धार हेतु
साधना की पवित्रता, संयमपूर्ण जीवन की शक्तिमता, चारित्रिक श्रेष्ठता और
आडम्बर रहित जीवन का उद्घोष किया उनकी संस्कृत तथा हिन्दी रचनाओं से
प्रमाणित होता है। प्राचीन तांत्रिक साधना-परम्परा और उसके अवस्थागत क्रमिक
विकास के महत्व की पुर्नप्रतिश्ठा का सम्पूर्ण श्रेय गोरक्षनाथ जी को ही
दिया जा सकता है। ‘‘धन जीवन की करें न आस, चित्त न राखै कामिनी पास’’ जैसे
कथनों से स्पष्ट होता है कि कंचन एवं कामिनी के प्रति निर्लोभी एवं
निर्मोही पवित्र मानसिकता उनके व्यक्तित्व के विशिष्ट अंग हैं। विभिन्न
प्रकार की सिद्धियों के बिषय में उनका अभिमत था कि सिद्धियों का प्रयोग
सर्व जन हिताय होना ही श्रेयस्कर है। गोरक्षनाथ जी के अन्तःकरण में सबके
प्रति समभाव था। उनके आचार सम्बन्धी उपदेश योग के सैद्धान्तिक अष्टांग योग
की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक थें। उनके व्यक्तित्व की सभी विशिष्टताएँ
सार्वभौम चारित्रिक आदर्श की सर्वमान्य विशेषताएँ हैं। इन सद्प्रवृत्तियों
एवं आदर्शों की उस समय सर्वत्र और सर्वाधिक उपेक्षा हो रही थी। इस संदर्भ
में गोरक्षनाथ जी और नाथपंथ के चारित्रिक उच्चादर्श के योगदान की सामाजिक
उपयोगिता एवं महत्ता को नकारा नहीं जा सकता है। हिन्दी साहित्य के कतिपय
विद्वानों ने गोरक्षनाथ जी एवं नाथपंथ की रचनाओं का उल्लेख करते हुये बाह्य
पूजा, तीर्थाटन, जातिपांति इत्यादि के प्रति उपेक्षा बुद्धि का प्रचार
रहस्यदर्शी बन कर शास्त्रज्ञ विद्वानों का तिरस्कार करने और मनमाने रूप
द्वारा अटपटी वाणी में पहेलिया बुझाना, घट के भीतर चक्र, नदियाँ, शून्यदेश
आदि मानकर साधना का प्रचार, नाद-विन्दु, सुरति-निरति जैसे शब्दों, उपदेशों
की विशेषताओं का वर्णन तो किया है किन्तु गोरक्षनाथ जी एवं नाथ पंथ की
चारित्रिक संयम और सदाचार की विशेषता पर ध्यान नहीं दिया। सम्पूर्ण सन्त
साहित्य के चिन्तन, मनन से यह स्पष्ट होता है कि गोरक्षनाथ जी ने अपने
सम्प्रदाय से ही नहीं, इतर सम्प्रदायों से भी आचार एवं संयम को लेकर लोहा
लिया। तभी तो इन्द्रिय निग्रह तथा ‘‘यहु मन सकती, यहु मन सीव, यहु मन पंच
तत्व का जीव। यह मन लै जै उन्मन रहै, तीनि लोक की वाता कहै।’’ के रूप में
सर्वान्तर्यामी आगत अनागत विन्दु स्वरूप में तथा संयम एवं सदाचार के आदर्श
के रूप में गोरक्षनाथ जी के व्यक्तित्व की प्रतिषठा संभव हो सकी।
यद्यपि वैदिक साधना के साथ समानान्तर रूप से प्रवाहित तांत्रिक
साधना का समान रूप से शैव, शाक्तों, जैनों, वैष्णवों आदि पर प्रभाव पड़ा।
तथापि उनसे सदाचार के नियमों का पालन यथाविधि नहीं हो सका। चतुर्दिक फैले
हुए अनाचार को देखकर गोरखनाथ जी ने ब्रह्मचर्य प्रधान योग युक्त ज्ञान का
व्यापक प्रचार-प्रसार किया। इसीलिये तो तुलसीदास जी बोल पड़े- गोरख जगायो
जोगु, भगति भगायो लोगु। भक्ति को भगाने वाला संबोधन से तात्पर्य कदाचित
साकारोपासना से है। गुरु गोरक्षनाथ जी की भक्ति मुख्य रूप से केवल गुरु तक
ही सीमित है।
गोरखनाथ जी ने भक्ति का कहीं भी विरोध नहीं किया है। तुलसीदास जी के कथन से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि यदि गोरक्षनाथ जी न होते तो संत साहित्य नहीं होता। गुरु गोरक्षनाथ और नाथ पंथ की योग-साधना एवं क्रिया-कलापों की प्रतिक्रिया ही सभी निर्गुण एवं सगुण मार्गी सन्तों के साहित्य में स्पष्ट होती है। उस प्रतिक्रिया के प्रवाह में प्राचीन जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म, अस्पृश्यता, ऊंच-नीच के सभी भेदभाव मिट गये। योग मार्ग के गूढ एवं गुह्य सिद्धान्तों को साकार करके जन भाषा में व्यक्त एवं प्रचलित करना गोरक्षनाथ जी का समाज के प्रति सबसे बड़ा योगदान था। गोरक्षनाथ जी के विराट व्यक्तित्व के कारण ही अनेक भारतीय तथा अभारतीय सम्प्रदाय नाथ पंथ में अन्तर्भुक्त हो गये। गोरखनाथ जी के योग द्वारा सिद्धि की प्राप्ति संयमित जीवन और प्राणायाम से परिपक्व देह की प्राप्ति, अन्त में नादावस्था की स्थिति में दिव्य अनुभूति और सबसे समत्व का भाव इत्यादि विशिष्टताओं ने तत्कालीन समाज एवं साधना पद्धतियों को अपने में लपेट लिया। तभी तो जायसी ने 'पद्मावत' में गुरु गोरक्षनाथ जी की महिमा के बारे में कहा है कि-
‘‘जोगी सिद्ध होई तब, जब गोरख सौ भेंट’’
तथा कबीरदास जी ने भी गोरखनाथ जी की अमरता का वर्णन इस प्रकार किया है-
कांमणि अंग विरकत भया, रत भया हरि नाहि। साषी गोरखनाथ ज्यूँ, अमर भये कलि माहि ।।
सन्त कबीर के अनगिनत साखियों, सबदियो में योगपरक रहस्य पदों का दिग्दर्शन है जिसमें प्राणायाम, षटचक्र, भेदन, कुण्डलिनी जागरण, सहज समाधि, उनमनी स्थिति इत्यादि योग-साधना के अन्तरंग रहस्यों का लोक जीवन के प्रतीकों के माध्यम से लोक भाषा में ही आकर्षण एवं सजीव वर्णन किया है। नाथ सन्तों की गुरुभक्ति को कबीर ने सर्वात्मना स्वीकार किया कहा कि-
‘‘सब धरती कागद करूं, लेखनी सब बनराय। सात समुद्र की मसि करूं, गुरू गुन लिखा न जाय।।
और गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय । बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय ।।
वस्तुतः समग्र हिन्दी साहित्य की मूल चेतना समृद्ध
लोकानुभव है। गोरक्षनाथ जी एवं नाथ सन्तों का ज्ञान वह किसी शास्त्र ही
नहीं, पुराण का ही नहीं, अपितु वह सहज लोकानुभव और लोक व्यवहार का था जिसे
वे जी रहे थें, भोग रहे थे। क्योंकि ब्रह्मचर्य, आसन, प्राणायाम,
मुद्राबन्ध, सिद्धावस्था के विविध अनुभव ऐसा कुछ भी नहीं, जिसके व्यवहार को
छोड़ कर शास्त्र का आधार लेना पड़े। उनका लोकानुभव यज्ञ और पण्डित, ऊँच-नीच
इत्यादि की विभाजक रेखा नहीं खींचता वह मनुष्य मात्र के लिये है। लोक जीवन
की विविधता का अनुभव सही मार्ग की पहचान इस लोक को संकट से उबारने तथा
स्वानुभूत सत्य को जन-जन तक सम्प्रेषित करना ही गुरु गोरक्षनाथ और नाथ
सन्तों का मुख्य ध्येय था। गोरखनाथ जी तथा अन्य नाथ सन्तों की योग-साधना
का प्रभाव हिन्दी साहित्य के साथ-साथ मराठी साहित्य, तेलुगु, उड़िया,
बंगाली, तमिल, कन्नड़, तिब्बती, चीनी साहित्य पर भी पड़ा। ज्ञानदेव जी अपनी
ज्ञानेश्वरी में कहते हैं कि मुझे यह ज्ञान परंपरागत प्राप्त हुआ। गुरु
गोरखनाथ जी से यह ज्ञान गहनीनाथ जी को तथा गहनीनाथ जी से निवृत्तिनाथ और
निवृत्तिनाथ से मुझे प्राप्त हुआ इसी प्रकार तेलुगु के सन्त बेमन, वीर
ब्रह्म आदि ने भी गुरु गोरखनाथ जी के भावों का अनुकरण किया।
उत्तरांचल
का लोक साहित्य भी गुरु गोरक्षनाथ तथा नाथ-सन्तों की गाथाओं के लिये बड़ा
समृद्ध है। यहाँ न केवल स्थानीय मंदिर एवं पर्वत शिखरों के नाम भी नाथ
सिद्धों के नाम से प्रसिद्ध हैं अपितु बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि के साथ नाथ
शब्द नाथ सन्तों के प्रभाव के कारण ही जुड़े। गढ़वाली लोक गीतों में
गोरक्षनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, सत्यनाथ, चौरंगीनाथ, नृसिंहनाथ, बटुकनाथ आदि
नाथ सन्तों का बार-बार उल्लेख मिलता है तो तंत्र-मंत्र, जादू-टोना,
झाड़-फूंक के लिये प्रसिद्ध थे। लोक गाथाओं में यहाँ जागर गाथाएँ प्रसिद्ध
हैं और उन सिद्धों के अवतरण के लिये गाये जाते हैं। गुरु गोरक्षनाथ जी तथा
नाथ सन्तों का प्रभाव सन्त साहित्य के साथ-साथ तत्कालीन राजवंशों पर भी
था। ऐसे बहुत से प्रमाण मिलते हैं जहां नाथ सन्तों ने राजा के आरोग्य तथा
निरंकुश होने पर राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली। बहुत से ऐसे स्थान भी
हैं जो नाथ सन्तों के आशीर्वाद से प्राप्त हुए। मेवाड़ का राववंश बप्पा रावल
को गुरु गोरखनाथ जी से ही प्राप्त हुआ था। गोरखनाथ जी द्वारा निर्दिष्ट
तत्वविचार तथा योग-साधना को आज भी उसी रूप में समझा जा सकता है।
नाथ सम्प्रदाय को गुरु गोरक्षनाथ जी ने भारतीय मनोवृत्ति के अनुकूल बनाया।
उसमें जहां एक ओर धर्म को विकृत करने वाली समस्त परंपरागत रूढ़ियों पर
कठोरता से विरोध किया, वहीं सामान्य जन को अधिकाधिक संयम और सदाचार के
अनुशासन में रखकर आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिये योग मार्ग का
प्रचार-प्रसार किया। गोरखनाथ जी एवं उनकी साधना-पद्धति का संयम एवं सदाचार
से संबंधित व्यावहारिक स्वरूप जन-जन में इतना लोकप्रिय हो गया था कि
विभिन्न धर्मावलम्बियों, मतावलम्बियों के अपने-अपने धर्म एवं मत को
लोकप्रिय बनाने तथा जन सामान्य को अपने कर्म पंथ में सम्मिलित कर लेने के
लिये नाथ पंथ की साधना का मनचाहा प्रयोग किया।
सम्प्रति समाज में नाना प्रकार की कुरीतियों, कुप्रभावों, अवांछनीयताएँ
परिव्याप्त हैं जो हिन्दू समाज को विखण्डित कर रही हैं। यदि विभिन्न प्रकार
की समाजिक, शारीरिक समस्याओं से मुक्ति प्रदान करना ही हमारा अभीष्ट है तो
नाथ पंथ की योग-साधना हमें इन समस्याओं से मुक्ति दिलाने में सहायक हो
सकती है। गुरु गोरक्षनाथ जी तथा नाथ सन्तों की यह साधना आज भी मनुष्य की
सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से समुन्नत और
स्वस्थ बनाने में निरंतर क्रियाशील है।
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