Monday, December 19, 2022

श्रीहरि

श्रीहरि
परम श्रद्धेय श्रीजयदयाल गोयन्दका जी का संक्षिप्त परिचय
श्रद्धेय श्रीजयदयाल गोयन्दका जी का जन्म ज्येष्ठ कृष्ण 6 विक्रम संवत 1942 को चुरु, राजस्थान में हुआ था । उनके पिताजी का नाम श्री खूबचन्दजी गोयन्दका एवं माताजी का नाम श्रीमती श्योदेवी गोयन्दका था । जयदयाल जी ने अपनी कर्म भूमि बाँकुङा (पश्चिम बंगाल) को बनाई थी ।
श्रद्धेय श्रीजयदयाल गोयन्दका जी बचपन से ही सत्यनिष्ठ एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे और पूर्वजन्म के संस्कारों के फलस्वरूप जैसे - जैसे बङे होते गये साधना में भी दृढता बढने लगी । उन्होंने सर्वप्रथम महाभारत का अध्ययन किया और महाभारत के अध्ययन से ही सूर्य उपासना और गीताजी के प्रचार- प्रसार की प्रेरणा मिली । सूर्य उपासना का ऐसा नियम रखा कि सूर्य के दर्शन के पश्चात ही भोजन करते थे और इस अवधि में कई बार भूखा भी रहना पङा।
भगवत् कृपा से जयदयाल जी को नाथ - सम्प्रदाय के संत शिरोमणी श्रीमंगलनाथ महाराज जी से सत्संग का अवसर प्रदान हुआ और सत्संग की उनके मन पर इतनी गहरी छाप पङी कि उसी समय उनके मन यह भाव जाग्रत हुआ कि मुझे भी श्रीमंगलनाथजी की तरह त्यागी और वैराग्यवान बनना है । भगवान की कृपा से साधना बढती हुई और विक्रम संवत 1964 में अपनी जन्मभूमि चुरु में निज स्थान में, मात्र 22 वर्ष की उम्र में भगवान श्रीविष्णु के दर्शनों का परम सौभाग्य प्राप्त हो गया । श्रीहरि के दर्शन होने के बाद जयदयाल जी के मन में सत्संग की रूचि और प्रबल हो गयी और सत्संग में अपना समय और अधिक देने लगे, जहाँ पर भी रहते थे वहीं सत्संग का आयोजन होने लगा और सत्संगियों की उपस्थिति भी बढने लगी ।
सेठजी विक्रम संवत 1967 में चक्रधरपुर में रहने लग गये थे और वहाँ से सत्संग करने के लिए बहुत बार खङगपुर आते थे उधर कलकत्ता से सत्संग प्रेमी खङगपुर पहुँच जाते थे, सत्संग करके वापस अपने- अपने स्थान को चले जाते थे ।
कलकत्ता में भी सत्संग करते रहते थे वहाँ पर श्रीआत्माराम खेमका जी गद्दी एवं श्रीहीरालालजी गोयन्दका जी की दुकान में सत्संग हुआ करता था । सत्संग प्रेमियों की संख्या बढती गई और संख्या को देखते हुए बाँसतल्ला में गोविन्द भवन के नाम से एक स्थान किराये पर लिया गया । कलकत्ता में यह स्थान श्रद्धेय श्रीजयदयाल जी गोयन्दका जी के सत्संग का प्रधान केन्द्र हो गया । जब कलकत्ता में गोविन्द भवन की स्थापना हुई तब से उस जगह के आगे के हिस्से में पुस्तकों, औषधियों, काँच की चूङियों तथा चर्मरहित जूतों की दूकान के रूप में काम में आता था । कालान्तर में यह स्थान सभी दृष्टियों से छोटा पङने लगा तब श्रीजयदयाल जी की अनुमति से महात्मा गाँधी सङक पर नये भवन के निर्माण हेतु जमीन खरीदी गयी और उसका शिलान्यास वैदिक विधि से श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार के कर कमलों से माघ विक्रम संवत 2016 में सम्पन्न हुआ और कुछ समय बाद एक तीन मंजिला विशाल गोविन्द भवन बनकर तैयार हो गया ।
श्रद्धेय श्रीजयदयाल गोयन्दका जी को महाभारत का अध्ययन करते करते भीष्मपर्व में श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को उपदेशों में श्लोक 68-69 पर दृष्टि ठहर गयी -
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ।।
श्रीकृष्ण कहते हैं - हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा वह मुझको ही प्राप्त होगा इसमें कोई संदेह नहीं है । उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं ।
इन्हीं श्लोकों से श्रीजयदयालजी के मन में यह भाव जाग्रत हुआ कि भगवान के विचारों का प्रचार -प्रसार करना है और उसी से प्रेरित होकर उन्होंने गीताप्रेस की स्थापना वैशाख शुक्ल 13, विक्रम संवत 1980 (29.04.1923) को गोरखपुर में की थी जिनमें मुख्य सहयोगी श्रीघनश्यामदास जी जालान एवं श्रीमहावीर प्रसाद जी पोद्दार थे । गीताप्रेस की स्थापना का मुख्य उद्देश्य श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीरामचरितमानस जैसे सनातन साहित्य जन - जन को उचित मूल्यों पर आसानी से सुलभ हो सके । शुरूआत में जिनसे छपाई का कार्य करवाया था उसमें बहुत सारी त्रुटिया रह जाती थी उसमें शुद्धता की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता था , बार -बार मशीन बंद करके संशोधन करना संभव नहीं हो पा रहा था तब भगवत प्रेरणा से उनको विचार आया कि अपनी खुद की प्रेस होनी चाहिए। प्रश्न ये था कि प्रेस कहाँ पर खोला जाय । उस समय श्रीहरि से प्रेरित दो सत्संगी एवं कर्मठ सज्जन घनश्याम दासजी जालान तथा महावीर प्रसाद जी पोद्दार ने गोरखपुर में प्रेस खोलने का सुझाव इस प्रस्ताव के साथ दिया कि वे दोनों गोरखपुर में रहते ही हैं , प्रेस का काम दोनों मिलकर सँभाल लेंगे । भगवत कृपा से और श्रद्धेय श्रीजयदयाल जी गोयन्दका जी के आशीर्वाद से अप्रैल 1923 में गीताप्रेस की स्थापना हो गई । श्रीजयदयाल जी का मानना था कि गीताप्रेस भगवान का काम है और भगवान के काम में किसी को शुरूआत करने की आवश्यकता है उसके बाद में कोई भी चीज की कमी है तो उसको भगवान ही पूरा करते हैं और इसी तरीके से सहयोगी जुङते गये और काम बढता गया । आज के दिन जो गीताप्रेस का स्वरूप बना है वो अपने आप में एक अनूठा है और ऐसी सुविधाएँ भारत भर में धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन में यदि कहा जाये तो एकमात्र संस्था गीताप्रेस ही है । आज के दिन गीताप्रेस के पास समयानुसार एवं जरुरत के अनुसार छपाई मशीनें और जिल्दबन्दी की मशीनें भगवान की कृपा से पूर्ण रूप से उपलब्ध हैं और विविधतायें बहुत हैं अभी अभी 2021 में चार रंग की छपाई मशीन जापान से निर्यात की गयी है । गीताप्रेस अब तक लगभग 72 करोङ पुस्तकें छाप चुकी हैं और 15 विभिन्न भाषाओं में छापती हैं । गीताप्रेस की खुद की पूरे भारतवर्ष में 21 दुकानें हैं 38 रेल्वे स्टेशनों पर स्टाल हैं और एक नेपाल में भी दुकान है । गीताप्रेस के अलग आयामों में गोबिन्द भवन कार्यालय , कलकत्ता में है जहां पर गीताप्रेस की स्थापना हुई थी और स्वर्गाश्रम, ऋषिकेश में सात गीता भवन हैं और उसमें 1100 कमरे हैं जहाँ पर सत्संगीयों के लिए ठहरने की व्यवस्था है उस व्यवस्था के लिए कोई भी शुल्क नहीं है लेकिन वहाँ पर वही ठहर सकता है जो सनातन धर्म में पूर्ण निष्ठा रखता हो , गीताप्रेस के सिद्धांतों से पूर्ण रूप से सहमत हो और वहाँ जो सत्संग के कार्यक्रम होते हैं सिर्फ उन्हीं का लाभ उठाने के लिए जाये । गीताप्रेस के संस्थापक श्रद्धेय श्रीजयदयाल जी गोयन्दका जी जो "सेठजी" के नाम से लोकप्रिय थे वही मुख्य थे उनके साथ सहयोगियों में श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार जिनको "भाईजी" के नाम से भी जानते हैं और श्रद्धेय श्रीरामसुखदास जी महाराज जिनको हम स्वामीजी के नाम से भी जानते हैं । इनका अनुव्रत सहयोग रहा और भी बहुत सारे भगवत् प्रेमी जुङे जिनका हम नाम तक नहीं जानते और उन्होंने जो सहयोग दिया वह अतुलनीय है और अवरणीय है । गीताप्रेस से जुङे हुए लोगों से कभी मिलने का सौभाग्य प्राप्त होता है तो उनसे सुनने को मिलता है कि कई सज्जन पुरुष ऐसे थे जो दिन - रात (24 घंटे) गीताप्रेस के काम लगे हुए थे वो लोग तन - मन - धन तीनों चीजों से गीताप्रेस के लिए समर्पित थे । आज भी बहुत सारे लोग तन - मन - धन तीनों से गीताप्रेस के लिए पूर्ण रूप से समर्पित हैं धन्य हैं ये लोग और धन्य हैं इनके माँ - बाप जिनको गीताप्रेस जैसी संस्था की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । जैसा कि हम सभी जानते हैं कि गीताप्रेस भगवान की ही है और गीताप्रेस का काम भगवान का काम है इसलिए दिनों दिन पल्लवित और पुष्पित हो रहा है । गीताप्रेस अप्रैल 2023 में अपने सौ वर्ष पूरे करने जा रही है तो ये गीताप्रेस का शताब्दी वर्ष को एक उत्सव के रूप में मनाने जा रहे हैं इस उत्सव में आप सभी सनातनी भाइयों का सहयोग अपेक्षित है ।
"नारायण नारायण"
"नारायण नारायण"

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