Sunday, July 6, 2025

सन्तवाणी

------------- सत्संग करो! अगर आपने सत्संग कर लिया तो असत का त्याग हो जाएगा, और अकर्त्तव्य का जन्म ही नहीं होगा! जब अकर्त्तव्य का जन्म ही नहीं होगा, तब आप कर्त्तव्यनिष्ठ हो जाएंगे! सत्संग का फल क्या हुआ कि प्रत्येक भाई, प्रत्येक बहन कर्त्तव्यनिष्ठ हो जाय! तो क्या कर्त्तव्यनिष्ठा भविष्य की वस्तु है ? मैं आपसे पूछता हूँ कि कर्त्तव्यनिष्ठता यदि भविष्य की वस्तु है तो वर्तमान की क्या है भाई ? अकर्त्तव्य ? इससे तो यही सिद्ध हुआ कि अगर कोई भाई यह जानता है कि कर्त्तव्यपरायणता भविष्य की वस्तु है तो वर्तमान में अकर्त्तव्य को स्वीकार करना पड़ेगा! अकर्त्तव्य जब वर्तमान में है तो भविष्य वर्तमान में बनेगा कि किसी और से ? आपको मानना पड़ेगा कि भविष्य वर्तमान के आधार पर ही बनता है! यदि वर्तमान में अकर्त्तव्य है तो भविष्य में कभी कर्त्तव्यनिष्ठ नहीं बन सकते! इसलिए भाई! बड़ी ही सावधानी के साथ हमें और आपको सत्संग करना है! सत्संग करने की बात है, भजन होने की बात है! भजन करने की बात नहीं है। ध्यान करने की बात नहीं, स्मरण करने की बात नहीं, चिंतन करने की बात नहीं, प्रीति करने की बात नहीं, योग करने की बात नहीं, बोध करने की बात नहीं! वह अपने आप होता है! करने की बात है सत्संग! क्यों ? कर्त्तव्य के साथ-साथ पुरुषार्थ आता है! होने के साथ-साथ पुरुषार्थ नहीं आता है। तो भाई! समस्त पुरुषार्थ किसमें लगाना है ? कि भाई! सत्संग में! किस सत्संग में ? इस सत्संग में नहीं कि आप एक सद्ग्रंथ की कथा सुन रहे हैं बैठे-बैठे! यह तो स्वाध्याय है, सत्संग नहीं है। सत्संग का असली अर्थ है कि आपका अपना जाना हुआ असत क्या है ? उसे प्रकट करके उस पर विचार करना! विचार करके उसका त्याग करना! तीन श्रेणी सत्संग की होती हैं अपने असत को जान लो और उसको प्रकट कर दो, फिर उस पर विचार कर लो और फिर उसका त्याग कर दो! इस प्रकार हम और आप एक बार सत्संग कर लें तो मेरा अपना विश्वास है कि फिर दुबारा सत्संग करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी! क्यों ? असत का जो त्याग है वह फिर बार-बार नहीं करना पड़ता! एक बार किया हुआ सदा के लिए परिपक्व हो जाता है। किंतु आज ऐसा नहीं कर पाते। क्यों नहीं कर पाते ? क्योकि हम पुरुषार्थ करते हैं भजन के करने में! लेकिन करते कब हैं ? सत्संग के बिना करते हैं। तो सत्संग के बिना किया हुआ विचार सजीव नहीं होता। इसलिए आज का जो मौलिक प्रश्न है वह है ‘सत्संग’ करने का! सत्संग करने का अर्थ जो मैंने समझा है जिसे अनेक बार अनेक ढंग से सेवा में निवेदन किया है वह केवल इतना है कि आप लोग कोई भी अपना जाना हुआ असत अपने सामने रखें! इसी बात को चरित्रार्थ करने के लिए विचार-विनिमय की पद्धति निकाली। इससे पूर्व हमारी पुरानी प्रथा में प्रश्न-उत्तर की पद्धति थी। प्रश्न-उत्तर की पद्धति कब तक सफल रही ? जब तक श्रोता और वक्ता के बीच में स्नेह और श्रद्धा का संबंध रहा, आज्ञापालन की सामर्थ्य रही! आज आप भाई मुंह से भले कह दो, आज्ञापालन की सामर्थ्य नहीं है। श्रोता और वक्ता के बीच स्नेह और श्रद्धा का संबंध नहीं है। आप यह न सोचिए कि मैं अपने संबंध में कहता हूं। जिनमें आप अपनी श्रद्धा बताते हैं उन्हीं की बात आप नहीं मानते हैं। यह आप अपने जीवन में देखिए। तो ऐसे समय में मानव सेवा संघ की नीति यह हुई कि भाई! देखो अब जैसी श्रद्धा होनी चाहिए श्रोता में वैसी नहीं है और जितनी उदारता होनी चाहिए वक्ता में उतनी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में परस्पर विचार-विनिमय द्वारा जो सत्संग है, वही हितकर सिद्ध हो सकता है। किंतु भाई! मैंने अभी उस पद्धति को सार्थक नहीं देखा, न यहां देखा न दूसरी जगह। उसका कारण क्या है ? उसका एकमात्र कारण यह है कि अगर हम विचार-विनिमय के लिए बैठते हैं तो उपदेश करने लगते हैं। और श्रोता लोग यह सोचते हैं कि प्रश्न तो हमारा हो, करे कोई दूसरा और उत्तर हम सुन लें। क्यों अगर मालूम हो गई कि हमारे जीवन में भी असत है तो उससे हमारी बड़ी निंदा हो जायेगी। असत के बनाये रखने से हमारी निंदा नहीं होती! लेकिन असत के प्रकट करने मे हमारी निंदा होती है! यह दुर्बलता जब तक रहेगी, हम सत्संग नहीं कर सकते प्रज्ञाचक्षु संत ब्रह्मलीन पूज्यपाद स्वामी श्री शरणानन्दजी महाराज सत्संग की महिमा परिवार

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