Saturday, August 9, 2025
निःस्वार्थ भक्ति ही एकमात्र उपाय"
निःस्वार्थ भक्ति ही एकमात्र उपाय"
एक दिन सन्तजी उपवन में ध्यानमुद्रा में राधामाधव की रासलीला के दर्शन कर रहे थे, तथा लीला का आनन्द लेते हुए उनके तन के हावभाव उसी लीला का अनुसरण करते हुए हिल रहे थे, उनके अधरों पर मुस्कान आ जा रही थी। तभी वहाँ से गुजरता हुआ एक नवयुवक उनके हावभाव तथा उनके अधर पर आती-जाती मुस्कान को देख कर रूक गया और वही कुछ दूरी पर सन्तजी के ध्यानभाव से बाहर आने की प्रतिक्षा के लिए बैठ गया। कुछ समय उपरांत जब सन्तजी अपने ध्यानमुद्रा से बाहर आये तो उनके सम्मुख आया और उन्हें प्रणाम कर उनके पास बैठ गया। नवयुवक के अन्तर्मन में उठते प्रश्नों को सन्तजी जी भलीभाँति देख पा रहे थे, किन्तु उसके मुख से सुनने के लिए उन्होंने उससे पुछा बेटा क्या आप कुछ कहना चाहते हैं।
सन्तजी की बात सुनकर युवक के अन्दर कहने की हिम्मत आ गई, और वह बोला कि मैं नियमित रूप से भगवान् की पूजा पूरी आत्मियता के साथ करता हूँ, किन्तु कभी उन्होंने मुझ पर कृपा करके मुझे अपने दर्शन नहीं दिये, पर आपको देख कर लगता है कि आप नित्य ही उनके दर्शन का प्रसाद पाते हैं। मेरे मन में यही प्रश्न उठ रहा है कि क्या कारण है कि एक भक्त तो सारा जीवन भगवान् के दर्शन नहीं कर पाता है और दूसरे भक्त को वे नित्य दर्शन देते हैं।
क्या आप विवाहित हैं ? सन्तजी ने बात को आगे बढ़ाते हुए युवक से पुछा। 'जी विवाह को सात वर्ष हो चुके हैं, तथा एक छ वर्ष का पुत्र भी है जो दूसरी कक्षा में पढ़ रहा है'- युवक ने जबाव देते हुए कहा। 'आपके जीवन निर्वाह का साधन क्या है'?-सन्तजी ने पुनः प्रश्न किया। 'एक बड़ी कम्पनी के कार्यालय में क्लर्क के पद पर कार्यरत हूँ'- युवक ने पुनः जबाव देते हुए कहा, किन्तु जो आय होती है उसमें निर्वाह में परेशानी होती है। 'फिर तो आपका ध्यान हर समय अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ही रहता होगा'? - सन्तजी का अगला प्रश्न था। 'जी, अगले माह से एक नई कम्पनी में कार्य के लिए एक जा रहा हूँ जहाँ वेतन तथा साधन अधिक हैं'- युवक ने जबाव देते हुए कहा। 'किन्तु आगे चल कर आवश्यकताएं पुनः बढ़ने पर क्या करोगे'? -सन्तजी ने सहज भाव से पूछा। 'अपने परिवार की आवश्यकताओं के लिए तथा भविष्य की बचत के लिए तो जिधर अपना लाभ दिखे उधर जाना एक स्वभाविक सी बात है, आखिर अपने लिए मुझे ही सोचना होगा। कम्पनी की ओर से तो बारी आने पर ही तरक्की मिलेंगी, वो भी आगे स्थान रिक्त होने पर'- युवक ने अपना पक्ष रखते हुए कहा। युवक का उत्तर सुन सन्तजी आँखें बन्द कर कुछ पल के लिए शान्त हो गये।
'आपके इस विचार से क्या सभी लोग सहमत होंगे'?- सन्तजी ने बड़े शान्त लहजे में अगला प्रश्न किया। 'यह तो एक व्यवहारिकता है, सभी नहीं, तो भी सौ में से नव्वे लोग तो मेरी इस बात से अवश्य ही सहमत होंगे'- एक आंतरिक खुशी का प्रदर्शन करते हुए युवक ने जबाव दिया। ' सौ में से नव्वे' अर्थात् दस लोग ऐसे भी होंगे जो आपके इस व्यवहारिक जबाव से सहमत नहीं होंगे' क्यों, क्या वे सभी अपनी उसी स्थिति में संतुष्ट हो जाएंगे ? 'नहीं' युवक ने तुरन्त जबाव देते हुए कहा, परन्तु शायद उनमें इतनी हिम्मत नहीं होगी कि वे बार-बार स्थान बदलने का रिस्क उठा सकें, मगर फिर भी यह निश्चित है कि उनका हरदम ध्यान अपनी तरक्की पर ही लगा रहेगा, अपनी आवश्यकताओं का रोना अपने अधिकारी के सम्मुख रोते रहेंगे।क्योंकि आवश्यकताएं तो सभी की होती हैं अन्यथा वह नौकरी ही क्यों करेगा। ' बाकी के सभी दस लोग ऐसे ही होंगे यदि कोई आपकी इस बात से भी सहमत न हो तो उसके विषय में आप क्या कहेंगे'?- सन्तजी ने पूछा। 'यदि ऐसा भी कोई रहता है तो मैं उसे अव्यवहारिक मूर्ख ही कहूँगा जो मेहनत करके भी अपने मातहत की दया का मोहताज बन कर ही बैठा रहे'- युवक ने कुछ गंम्भीरता भरे लहजे में जबाव दिया। इतना जबाव सुनने के बाद सन्तजी ने युवक से बहुत ही विनम्रता पुर्वक कहा कि 'बेटा ये तो आपने अपना पक्ष बताया किन्तु आपने ये नहीं बताया कि अधिकारी किस से खुश होगा'। 'निसंदेह उसी से जो बिना वेतन की शिकायत के बस चुपचाप चाकरी करता होगा'- युवक ने बड़ी ही आत्मियता के साथ उत्तर दिया।
सन्तजी युवक के सभी जबाव सुन कर बड़े ही निश्चित भाव से बोले-'बेटा अब विलंब हो रहा है हमें चलना चाहिए। युवक ने उन्हें टोकते हुए कहा कि आपने मुझसे तो अनेकों प्रश्न कर लिये, किन्तु मेरे एक प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। इसपर सन्तजी बोले बेटा हमने आपसे कोई प्रश्न किया हो हमें ज्ञात नहीं, हाँ आपके प्रश्न का उत्तर आपको मिल चुका है, और आप अपने प्रश्न का उत्तर बहुत अच्छी तरह जानते भी हैं। परन्तु लगता है शायद आपका मन उसे मानने को तैयार नहीं है। मैं कुछ समझा नहीं,- युवक ने जबाव दिया। मैं तो आपसे यह जानना चाहता था की जिस तरह आपको प्रभु की लीला का दर्शन होता है, वह मुझे या मुझ जैसे लोगों को क्यों नहीं हो पाता।
बेटा, जहाँ तक मैं आपको जान पाया हूँ कि आप जिस कम्पनी के आफिस में कार्य करते हैं यदि उसका मालिक आपके समक्ष आ जाए तो उसे कहने के लिए आपके पास अपनी ढेरों समस्याएं एवं इच्छाएँ होगीं और वह शायद आपको उतना समय भी ना दे पाए कि आप अपनी सभी समस्या एवं इच्छाओं से उसे अवगत करा सको तो फिर यदि प्रभु आपके समझ आ भी गए तो भी आप मिलन का अमूल्य समय अपनी इच्छाओं से अवगत कराने में ही गंवा दोगे।आपसे हमने जो पहला प्रश्न किया था उसके अनुसार आप अपनी जरूरतों और सहुलियतों के हिसाब से आप अपनी नौकरी बदल लेते हो, अर्थात जैसे सोमवार को शिवाराधना करने के उपरांत अगले सोमवार का इन्तजार न करके मंगलवार को बजरंगबली, बुधवार को गणपति, शुक्रवार को दुर्गा माँ का व्रत करते हुए सोमवार को पुनः शिवजी के पास आ जाओ, या यूं कहें कि दस दिन गणपति की स्थापना कर उनके विसर्जन के अगले दिन नौ दिनों के लिये देवी की स्थापना कर लेना ताकि जो आपकी इच्छाएँ गणपति जी ठुकरा दें वे माता पूर्ण कर दें, आपकी इस तरह की आराधनाओं से प्रभु भी विचलित रहते हैं कि आप उनके किस रूप को प्रेम कर रहे हो और क्यों सिर्फ अपनी इच्छाओं की शीघ्रता से पूर्ति के लिए। हमें लगता है कि आपके ही आँकड़ों के अनुसार सौ में से नव्वे लोग तो इसी कारण प्रभु के दर्शन का लाभ नहीं पा पाते।अब बात करते हैं आपके दूसरे प्रश्न के जबाव की जिसके अनुसार यदि आप जिस मालिक की नौकरी करेंगे उसे ही अपनी समस्याओं एवं इच्छाओं से अवगत कराओगे, क्योंकि आपका मानना है कि जिसकी आप नौकरी कर रहे हैं उसे अपनी इच्छाओं से अवगत कराना आपका हक है तथा उन्हें पूरा करना ही उस मालिक का फर्ज है। असल में आप सेवा मालिक की नहीं अपनी इच्छाओं की करते हैं। या यूँ कहें की आप प्रभु से नहीं अपनी अभिलाषाओं से प्रेम कर रहे हैं तो फिर प्रभु के दर्शन आप कैसे पा सकते हैं।अब बात करते हैं आपके द्वारा दिये गए तीसरे उत्तर कि जिसके अनुसार जो व्यक्ति आपके पूर्व में दिये गए दोनों उत्तरों से सहमत नहीं होगा वह कोई अव्यवहारिक मूर्ख ही होगा, आपकी नजर में वह अव्यवहारिक को सकता है किन्तु वह अच्छी तरह जानता है कि वह जितने का हकदार है उतना उसका मालिक उसे अवश्य देगा, उसका कार्य केवल अपने मालिक की सेवा करना है अपने मालिक की इच्छाओं का ध्यान रखना ही उसका एकमात्र कर्तव्य है यदि उसके मालिक को कोई परेशानी न होगी तो वह स्वयं ही सेवक की इच्छाओं का ध्यान रखेगा।और आपके चौथे प्रश्न का उत्तर भी एक दम सही है की ऐसा सेवक ही अपने मालिक का कृपा पात्र होगा और ऐसे सेवकों से प्रसन्न होकर मालिक उन्हें अपना विशेष सेवक नियुक्त करता है जिन्हें मालिक के अधिकार के उन स्थानों पर भी बेरोकटोक आने-जाने की अनुमति मिल जाती है जहाँ किसी अन्य कर्मचारी को जाने की अनुमति नहीं होती उन्हें मालिक से मिलने के लिए किसी की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती, तथा मालिक की ओर से उसे कुछ ऐसे विशेष अधिकार भी मिल जाते हैं जिनकी वजह से वह मालिक की अनुपस्थिति में निर्णय लेने का भी अधिकारी हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को आपकी भाषा में असिस्टेंट तथा हमारी भाषा में कृपापात्र कहते हैं। भगवान् के कृपापात्र को ही सन्त कहते हैं एक सन्त को उनके भगवतधाम में कभी भी और कहीं भी आने जाने की छूट होती है किन्तु अपनी कोई निजी इच्छा या अभिलाषा को लेकर सन्त कभी भी प्रभु के धाम नहीं जाते अपितु प्रभु की इच्छा पूर्ति के लिए उनकी सेवा के लिए जाते हैं। हमें जो अभी कुछ समय पूर्व आपने हमें देखा था और प्रश्न किया था की हमपर प्रभु के दर्शन पाने की कृपा कर रखी है प्रभु ने, तो उसके विषय में हम इतना ही कह सकते हैं कि हम तो केवल प्रभु के सेवक हैं और हमें जब, जहाँ जाकर जिस रूप में प्रभु की सेवा दी जाती है हम उसी स्थान पर जाकर वही सेवा करते हैं । यदि पूर्ण समर्पण भाव से पूर्ण लगन के साथ निस्वार्थ रूप से प्रभु की सेवा की जाये तो प्रभु को आपकी सेवा स्वीकार करनी ही होगी। और यही प्रभु के दर्शन पाने का एक मात्र उपाय है। सन्तजी द्वारा दिये गये उत्तर से संतुष्ट हो वह नवयुवक सन्तजी को दण्डवत प्रणाम कर उपवन से अपनी राह की ओर चला गया और सन्तजी अपनी कुटिया की ओर बढ़ गये।
– (चन्द्र प्रकाश शर्मा)
॥जय जय श्री राध
Subscribe to:
Post Comments (Atom)


No comments:
Post a Comment