दुनिया के महान तपस्वी, महान कवि, महान योद्धा, संत सिपाही साहिब
गुरु गोबिंद सिंह जी जिसको बहुत ही श्रद्धा व प्यार से कलगीयां, सरबंस
दानी, नीले वाला, बाला प्रीतम, दशमेश पिता आदि नामों से पुकारा जाता
है।…
"चिडि़यों से मै बाज तड़ाऊं। सवा लाख से एक लड़ाऊं। तभी गोबिंद सिंह नाम कहाऊं।"
गुरु गोबिंद सिंह जी का पिछले जन्म का नाम दुष्टदमन था जो उन्होंने अपनी जीवन कथा (बचित्र नाटक) में लिखा है। उनके मुताबिक सपत सरिंग परबत में जहां पांडव राजे ने जोग कमाया था वहां हेमकुंट चोटी कर मैने बहुत तपस्या की व निरंकार से एक रूप हो गया। उस समय मेरे माता पिता जी ने अपने पुत्र के लिए अकालपुर्ख की बहुत अराधना की। परमात्मा ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर मुझे उनके घर जन्म लेने के लिए कहा पर मैं इस संसार में नहीं आना चाहता था। क्योंकि मैं प्रभु चरणों में लीन था। अकालपुर्ख ने मुझे बहुत समझाया और मैं उनकी आज्ञा से इस संसार में जन्म लेकर आया। इह कारण प्रभु मोहि पठायो। तब मैं जगत जन्म धर आयो। गुरु साहिब ने लिखा है कि अकालपुर्ख ने मुझे संसार में भेजते समय आज्ञा की और कहा कि मैं अपना सुत तोहि निवाजा, पंथ प्रचुर करबे कह साजा, अर्थात मैं अपना बेटा बना कर भेज रहा हूं और संसार में जाकर गरीबों की रक्षा हेतु पंथ का निर्माण करो। गोबिंद राय ने अपन बचपन में अरबी, फारसी, संस्कृत, पंजाबी व अन्य भाषाओं की पढ़ाई की व इन भाषाओं में परवीनता प्राप्त की। बड़े होकर इन्होंने बाणी की कई रचनाएं की जिनमें जाप साहिब, अकाल उसत्त, बचित्र नाटक, चंडी की वार व चरित्रों पखायान आदि हैं। इन्होंने घुड़सवारी, तलवारबाजी, तीरअंदाजी में भी निपुणता हासिल की। मुगलों के साथ व हिंदु राजपूत राजाओं के साथ भी इनके कई युद्ध हुए जिनमें मुगल सेना व पहाड़ीराजा सेना को हर बार मुंह की खानी पड़ी। यह युद्ध गुरु जी ने कोई जमीन जायदाद के लिए नहीं किए थे बल्कि जुल्म के विरुद्ध किए थे। उन्होंने साफ कहा कि यदि जुल्म के विरुद्ध सारे उपाय नाकाम हो जाएं तो तलवार उठाना कोई पाप नहीं बल्कि पुण्य है। आत्म रक्षा हेतू यह जायज है। चूं कार अज हमा हीलते दर गुजस्त। हलाल असत बुरदन बशमशीर दसत।।
गुरु जी ने 30 मार्च 1699 को बैसाखी वाले दिन सारे हिंदुस्तान से जनता को आनंदपुर साहिब में बुलाया। इतिहास के अनुसार उनके बुलावे पर करीब 80 हजार लोग वहां पहुंचे। खचाखच भरे दरबार में गुरु जी ने नंगी तलवार से एक शीश की मांग की। सबसे पहले दयाराम जी लाहौर वाले ने अपना शीश भेंट किया। गुरु जी उसे पकडक़र तंबू में ले गए और एक झटके की आवाज सुनाई दी। गुरु जी जब बाहर आए तो उनकी तलवार लहू से सनी हुई थी। बाहर आने के बाद उन्होंने दोबारा एक ओर शीश की मांग रख दी। इसी प्रकार धर्म चंद, हिम्मत राय, मोहकम चंद, साहिब राम ने अपना शीश देने का प्रस्ताव रखा। उसके बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने उनको अमृत छकाया। इन पांच प्यारों से विनती कर स्वयं भी अमृतपान किया और अपना नाम गोबिंद राय से गोबिंद सिंह रखा। इसके बाद पूरी दुनिया में उनकी साख में गुणात्मक वृद्धि हुई। उनकी दिनोंदिन चड़त देखकर हिंदु राजा इर्शालु हो गए व औरंगजेब से सहायता मांगी। औरंगजेब के हुकम अनुसार सरहिंद, लाहौर के सूबेदार व शाही सेना के राजपूत पहाड़ी राजाओं ने गुरु जी पर आनंदुपर साहिब में धावा बोल दिया। सात महीने तक लड़ाई चलती रही पर बेनतीजा देख कर मुगल सरदारों ने व पहाड़ी राजाओं ने कुरान व गऊमाता की कसम खाकर गुरु जी से किला खाली करने के लिए विनती की। जब गुरु जी किले से बाहर आए तो शाही सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया। सरसा नदी के किनारे घोर युद्ध हुआ। कई सिंह शहीद हो गए। केवल सालीस सिंह व गुरु जी चकमौर की गढ़ी में पहुंच कर मोर्चे संभाल लिए। 22 दिसंबर 1704 को भारी युद्ध हुआ। सिख केवल 40 थे लेकिन शाही सेना की तादाद लाखों में थी। सारा दिन युद्ध हुआ। गुरु जी के बड़े साहिबजादे लड़ाई में शहीद हो गए।
रात होने पर पांच सिखों ने गुरु जी से विनती की कि आप गढ़ी से चले जाएं क्योंकि आपकी सिखों व हिंदु जनता को अभी बहुत जरूरत है। गुरु जी पहले तो मान नहीं रहे थे लेकिन पांच प्यारों के दबाव में गुरु जी रात के समय ताड़ी मार कर गढ़ी से चले गए। उधर छोटे साहिबजादे व माता गुजरी सरसा नदी की लड़ाई के समय गुरु जी से बिछड़ गए। साहिबजादे व माताजी को गुरु जी का रसोईया गंगू ब्राह्मण ने लालच में आकर सूबा सरहिंद को पकड़वा दिया। सूबे ने उन्हें मुसलमान करने के लिए कई यत्न किए पर साहिबजादे जब नहीं मान तो उन्हें जिंदा दिवारों में चिनवा कर शहीद कर दिया गया। चमकौर की गढ़ी से जाने के बाद गुरु जी माछी वाडे से होते हुए मालवा प्रदेश में पहुंचे जहां पर सिखों ने उनका स्वागत किया। कांगड़ गांव में गुरु जी ने औरंगजेब को चिठी लिखी जो कि जफरनामा (फतेहनामा) से मशहूर है जिसमें गुरु जी ने औरंगजेब को फटकार लगाई और कहा कि तूने औरंगजेब नाम को कलंकित किया है। तू सच्चा मुसलमान भी नहीं है क्योंकि कुरान जुल्म के खिलाफ है। तूने यदि मेरे चार मासूम बच्चे मरवा दिए तो क्या हुआ अभी मैं जिंदा हूं और तेरे राज का खात्मा अब अवश्य है। इतिहास गवाह है कि औरंगजेब ने जब यह चिठी पढ़ी तो वह बहुत ही भयभीत हो गया और उसने एक शासनादेश जारी किया कि गुरु गोबिंद सिंह की जायदाद वापिस की जाए और वह हिंदुस्तान में कहीं भी जाए उसको कोई तंग न करे। लेकिन औरंगजेब इतना भयभीत था कि उसने कुछ दिनों में ही शरीर छोड़ दिया। उसका बड़ा लडक़ा मुअजम गुरु जी की सहायता से राजगद्दी पर बैठा। सिखों ने उसके राज में ही साहिबजादो का बदला ले लिया व मुगल सल्तनत अति कमजोर हो गई।
साभार, रवींद्र सिंह राठी, हरियाणा पत्रकार संघ (रजि)
Posted by : vipul koul
"चिडि़यों से मै बाज तड़ाऊं। सवा लाख से एक लड़ाऊं। तभी गोबिंद सिंह नाम कहाऊं।"
गुरु गोबिंद सिंह जी का पिछले जन्म का नाम दुष्टदमन था जो उन्होंने अपनी जीवन कथा (बचित्र नाटक) में लिखा है। उनके मुताबिक सपत सरिंग परबत में जहां पांडव राजे ने जोग कमाया था वहां हेमकुंट चोटी कर मैने बहुत तपस्या की व निरंकार से एक रूप हो गया। उस समय मेरे माता पिता जी ने अपने पुत्र के लिए अकालपुर्ख की बहुत अराधना की। परमात्मा ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर मुझे उनके घर जन्म लेने के लिए कहा पर मैं इस संसार में नहीं आना चाहता था। क्योंकि मैं प्रभु चरणों में लीन था। अकालपुर्ख ने मुझे बहुत समझाया और मैं उनकी आज्ञा से इस संसार में जन्म लेकर आया। इह कारण प्रभु मोहि पठायो। तब मैं जगत जन्म धर आयो। गुरु साहिब ने लिखा है कि अकालपुर्ख ने मुझे संसार में भेजते समय आज्ञा की और कहा कि मैं अपना सुत तोहि निवाजा, पंथ प्रचुर करबे कह साजा, अर्थात मैं अपना बेटा बना कर भेज रहा हूं और संसार में जाकर गरीबों की रक्षा हेतु पंथ का निर्माण करो। गोबिंद राय ने अपन बचपन में अरबी, फारसी, संस्कृत, पंजाबी व अन्य भाषाओं की पढ़ाई की व इन भाषाओं में परवीनता प्राप्त की। बड़े होकर इन्होंने बाणी की कई रचनाएं की जिनमें जाप साहिब, अकाल उसत्त, बचित्र नाटक, चंडी की वार व चरित्रों पखायान आदि हैं। इन्होंने घुड़सवारी, तलवारबाजी, तीरअंदाजी में भी निपुणता हासिल की। मुगलों के साथ व हिंदु राजपूत राजाओं के साथ भी इनके कई युद्ध हुए जिनमें मुगल सेना व पहाड़ीराजा सेना को हर बार मुंह की खानी पड़ी। यह युद्ध गुरु जी ने कोई जमीन जायदाद के लिए नहीं किए थे बल्कि जुल्म के विरुद्ध किए थे। उन्होंने साफ कहा कि यदि जुल्म के विरुद्ध सारे उपाय नाकाम हो जाएं तो तलवार उठाना कोई पाप नहीं बल्कि पुण्य है। आत्म रक्षा हेतू यह जायज है। चूं कार अज हमा हीलते दर गुजस्त। हलाल असत बुरदन बशमशीर दसत।।
गुरु जी ने 30 मार्च 1699 को बैसाखी वाले दिन सारे हिंदुस्तान से जनता को आनंदपुर साहिब में बुलाया। इतिहास के अनुसार उनके बुलावे पर करीब 80 हजार लोग वहां पहुंचे। खचाखच भरे दरबार में गुरु जी ने नंगी तलवार से एक शीश की मांग की। सबसे पहले दयाराम जी लाहौर वाले ने अपना शीश भेंट किया। गुरु जी उसे पकडक़र तंबू में ले गए और एक झटके की आवाज सुनाई दी। गुरु जी जब बाहर आए तो उनकी तलवार लहू से सनी हुई थी। बाहर आने के बाद उन्होंने दोबारा एक ओर शीश की मांग रख दी। इसी प्रकार धर्म चंद, हिम्मत राय, मोहकम चंद, साहिब राम ने अपना शीश देने का प्रस्ताव रखा। उसके बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने उनको अमृत छकाया। इन पांच प्यारों से विनती कर स्वयं भी अमृतपान किया और अपना नाम गोबिंद राय से गोबिंद सिंह रखा। इसके बाद पूरी दुनिया में उनकी साख में गुणात्मक वृद्धि हुई। उनकी दिनोंदिन चड़त देखकर हिंदु राजा इर्शालु हो गए व औरंगजेब से सहायता मांगी। औरंगजेब के हुकम अनुसार सरहिंद, लाहौर के सूबेदार व शाही सेना के राजपूत पहाड़ी राजाओं ने गुरु जी पर आनंदुपर साहिब में धावा बोल दिया। सात महीने तक लड़ाई चलती रही पर बेनतीजा देख कर मुगल सरदारों ने व पहाड़ी राजाओं ने कुरान व गऊमाता की कसम खाकर गुरु जी से किला खाली करने के लिए विनती की। जब गुरु जी किले से बाहर आए तो शाही सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया। सरसा नदी के किनारे घोर युद्ध हुआ। कई सिंह शहीद हो गए। केवल सालीस सिंह व गुरु जी चकमौर की गढ़ी में पहुंच कर मोर्चे संभाल लिए। 22 दिसंबर 1704 को भारी युद्ध हुआ। सिख केवल 40 थे लेकिन शाही सेना की तादाद लाखों में थी। सारा दिन युद्ध हुआ। गुरु जी के बड़े साहिबजादे लड़ाई में शहीद हो गए।
रात होने पर पांच सिखों ने गुरु जी से विनती की कि आप गढ़ी से चले जाएं क्योंकि आपकी सिखों व हिंदु जनता को अभी बहुत जरूरत है। गुरु जी पहले तो मान नहीं रहे थे लेकिन पांच प्यारों के दबाव में गुरु जी रात के समय ताड़ी मार कर गढ़ी से चले गए। उधर छोटे साहिबजादे व माता गुजरी सरसा नदी की लड़ाई के समय गुरु जी से बिछड़ गए। साहिबजादे व माताजी को गुरु जी का रसोईया गंगू ब्राह्मण ने लालच में आकर सूबा सरहिंद को पकड़वा दिया। सूबे ने उन्हें मुसलमान करने के लिए कई यत्न किए पर साहिबजादे जब नहीं मान तो उन्हें जिंदा दिवारों में चिनवा कर शहीद कर दिया गया। चमकौर की गढ़ी से जाने के बाद गुरु जी माछी वाडे से होते हुए मालवा प्रदेश में पहुंचे जहां पर सिखों ने उनका स्वागत किया। कांगड़ गांव में गुरु जी ने औरंगजेब को चिठी लिखी जो कि जफरनामा (फतेहनामा) से मशहूर है जिसमें गुरु जी ने औरंगजेब को फटकार लगाई और कहा कि तूने औरंगजेब नाम को कलंकित किया है। तू सच्चा मुसलमान भी नहीं है क्योंकि कुरान जुल्म के खिलाफ है। तूने यदि मेरे चार मासूम बच्चे मरवा दिए तो क्या हुआ अभी मैं जिंदा हूं और तेरे राज का खात्मा अब अवश्य है। इतिहास गवाह है कि औरंगजेब ने जब यह चिठी पढ़ी तो वह बहुत ही भयभीत हो गया और उसने एक शासनादेश जारी किया कि गुरु गोबिंद सिंह की जायदाद वापिस की जाए और वह हिंदुस्तान में कहीं भी जाए उसको कोई तंग न करे। लेकिन औरंगजेब इतना भयभीत था कि उसने कुछ दिनों में ही शरीर छोड़ दिया। उसका बड़ा लडक़ा मुअजम गुरु जी की सहायता से राजगद्दी पर बैठा। सिखों ने उसके राज में ही साहिबजादो का बदला ले लिया व मुगल सल्तनत अति कमजोर हो गई।
साभार, रवींद्र सिंह राठी, हरियाणा पत्रकार संघ (रजि)
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