Wednesday, September 2, 2020

*ॐ श्री परमात्मने नमः*


*ॐ श्री परमात्मने नमः*

_प्रश्न‒स्वामीजी, आप भक्तिको, सगुणको मुख्य मानते हैं, पर आपके प्रवचनोंमें ज्ञानकी, निर्गुणकी बात अधिक आती है, इसका क्या कारण है ?_

*स्वामीजी‒पहलेका स्वभाव पड़ा हुआ है ! वेदान्तकी बातें मेरेको शुरूसे ही जँचती नहीं थीं । जब सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका)-के पास आया तो उनसे सबसे पहले यह प्रश्न किया कि अन्तमें ज्ञान है या भक्ति ? उन्होंने ज्ञान बताया । मैंने उनकी बात मान ली, जबकि भीतर भक्ति भरी हुई थी ! पहले भक्तिके संस्कार होनेसे मेरे शरीरमें अनेक लक्षण प्रकट होते थे । कभी अश्रुपात होता था, कभी तेज हँसी आती थी, जो रुकती ही नहीं थी ! पर ज्ञानकी मुख्यता माननेसे वे लक्षण लुप्त हो गये । यद्यपि सेठजीको भगवान्‌ने अपनी मरजीसे दर्शन दिये थे, फिर भी उनका स्वभाव ज्ञानका ही रहा ।*

*सेठजीने योगवासिष्ठका अध्ययन किया था और उनमें निर्गुणके संस्कार थे । पीछे उनको भगवद्दर्शन होनेसे उनके निर्गुणके संस्कार ढीले हुए । फिर भी उनके भीतर निर्गुणकी ही मुख्यता रही; क्योंकि उसीको लेकर साधन चला था । परन्तु वे यह भी मानते थे कि ज्ञानसे पूरी प्रक्रिया ठीक नहीं बैठती ! उन्होंने एक बार कहा भी कि सगुणको माने बिना काम चलता नहीं ! एक ऐसी शक्ति (प्रकृति) माननी ही पड़ेगी, जिससे सृष्टिका संचालन होता है, उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय होता है । यदि शक्तिको स्वीकार करेंगे तो सगुणकी मुख्यता हो जाती है

 

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