Wednesday, April 25, 2018

गीताप

गीताप
भक्त जब एकान्त में बैठता है, तब उसकी दृष्टि में एक भगवान्‌ के सिवाय कुछ नहीं होता । अतः वह भगवत्प्रेम की मादकता में डूबा रहता है । परन्तु जब वह व्यवहार करता है, तब भगवान् संसाररूप से सेव्य बनकर उसके सामने आते हैं । अतः व्यवहार में भक्त अपनी प्रत्येक क्रिया से भगवान्‌ का पूजन करता है‒‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः’ (गीता १८ । ४६) । पहले पूजक मुख्य होता है, फिर वह पूजा होकर पूज्य में लीन हो जाता है ।
परमात्मा सगुण हैं कि निर्गुण हैं, साकार हैं कि निराकार हैं, दयालु हैं कि न्यायकारी अथवा उदासीन हैं, द्विभुज हैं कि चतुर्भुज हैं आदि विचार करना भक्त का काम नहीं है । ऐसा विचार उसी वस्तु के विषय में किया जाता है, जिसका त्याग अथवा ग्रहण करने की आवश्यकता हो; क्योंकि ‘संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने’ (मानस, बाल○ ६ । १) । जैसे, हम कोई वस्तु खरीदने जाते हैं तो परीक्षा करते हैं कि वस्तु कैसी है, मेरे लिये कौन-सी वस्तु उपयोगी है, आदि । परन्तु परमात्मा का त्याग कोई कर सकता ही नहीं । जीवमात्र परमात्मा का सनातन अंश है । अंश अंशी का त्याग कैसे कर सकता है ? इतना ही नहीं, सर्वसमर्थ परमात्मा भी अगर चाहें तो जीव का त्याग करने में असमर्थ हैं । अतः जिस परमात्मा का त्याग कर सकते ही नहीं, उसके लिये यह विचार करना अथवा परीक्षा करना निरर्थक है कि वे कैसे हैं । वे तो वास्तव में सदा से ही अपने हैं । केवल अपनी भूल मिटाकर उनको स्वीकारमात्र करना है । जैसे विवाह होनेपर पतिव्रता की दृष्टि में पति कैसा ही हो, वह हमारा है, ऐसे ही परमात्मा कैसे ही हों, वे हमारे हैं*-
असुन्दरः सुन्दरशेखरो वा गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा ।
द्वेषी मयि स्यात्‌ करुणाम्बुधिर्वा श्यामः स एवाद्य गतिर्ममायम् ॥
‘मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण कुरूप हों या सुन्दर-शिरोमणि हों, गुणहीन हों या गुणियों में श्रेष्ठ हों, मेरे प्रति द्वेष रखते हों या करुणासिन्धु-रूप से कृपा करते हों, वे चाहे जैसे हों, मेरी तो वे ही एकमात्र गति हैं ।’
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्मर्महतं करोतु वा ।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः ॥ (शिक्षाष्टक ८)
‘वे चाहे मुझे हृदय से लगा लें या चरणों में लिपटे हुए मुझे पैरोंतले रौंद डालें अथवा दर्शन न देकर मर्माहत ही करें । वे परम स्वतन्त्र श्रीकृष्ण जैसा चाहें, वैसा करें, मेरे तो वे ही प्राणनाथ हैं, दूसरा कोई नहीं ।’
* पति तो परतः है, पर भगवान् स्वतः हैं । भगवान् स्वतः सबके परमपति हैं‒‘पतिं पतीनां परमम्’ (श्वेताश्वतर○ ६ । ७) ।
'सत्य की खोज' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 1019, विषय- योग ( कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग ), पृष्ठ-संख्या- ३९-४१, गीताप्रेस गोरखपुर
ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज
विषयों में सुख नहीं है-
मौत के मुँह में पड़े हुए मनुष्य का भोगों की तृष्णा रखना वैसा ही है जैसा कालसर्प के मुँह में पड़े हुए मेढक का मच्छरों की ओर झपटना ! पता नहीं कब मौत आ जाय । इसलिये भोगों से मन हटाकर दिन-रात भगवान् में मन लगाना चाहिये । जबतक स्वास्थ्य अच्छा है तभीतक भजन में आसानी से मन लगाया जा सकता है । अस्वस्थ होनेपर बिना अभ्यास के भगवान् का स्मरण होना भी कठिन हो जायगा । इसी से भक्त प्रार्थना करता है-
कृष्ण त्वदीयपदपकजपपञ्जरान्ते अद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः ।...
भक्त जब एकान्त में बैठता है, तब उसकी दृष्टि में एक भगवान्‌ के सिवाय कुछ नहीं होता । अतः वह भगवत्प्रेम की मादकता में डूबा रहता है । परन्तु जब वह व्यवहार करता है, तब भगवान् संसाररूप से सेव्य बनकर उसके सामने आते हैं । अतः व्यवहार में भक्त अपनी प्रत्येक क्रिया से भगवान्‌ का पूजन करता है‒‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः’ (गीता १८ । ४६) । पहले पूजक मुख्य होता है, फिर वह पूजा होकर पूज्य में लीन हो जाता है ।
परमात्मा सगुण हैं कि निर्गुण हैं, साकार हैं कि निराकार हैं, दयालु हैं कि न्यायकारी अथवा उदासीन हैं, द्विभुज हैं कि चतुर्भुज हैं आदि विचार करना भक्त का काम नहीं है । ऐसा विचार उसी वस्तु के विषय में किया जाता है, जिसका त्याग अथवा ग्रहण करने की आवश्यकता हो; क्योंकि ‘संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने’ (मानस, बाल○ ६ । १) । जैसे, हम कोई वस्तु खरीदने जाते हैं तो परीक्षा करते हैं कि वस्तु कैसी है, मेरे लिये कौन-सी वस्तु उपयोगी है, आदि । परन्तु परमात्मा का त्याग कोई कर सकता ही नहीं । जीवमात्र परमात्मा का सनातन अंश है । अंश अंशी का त्याग कैसे कर सकता है ? इतना ही नहीं, सर्वसमर्थ परमात्मा भी अगर चाहें तो जीव का त्याग करने में असमर्थ हैं । अतः जिस परमात्मा का त्याग कर सकते ही नहीं, उसके लिये यह विचार करना अथवा परीक्षा करना निरर्थक है कि वे कैसे हैं । वे तो वास्तव में सदा से ही अपने हैं । केवल अपनी भूल मिटाकर उनको स्वीकारमात्र करना है । जैसे विवाह होनेपर पतिव्रता की दृष्टि में पति कैसा ही हो, वह हमारा है, ऐसे ही परमात्मा कैसे ही हों, वे हमारे हैं*-
असुन्दरः सुन्दरशेखरो वा गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा ।
द्वेषी मयि स्यात्‌ करुणाम्बुधिर्वा श्यामः स एवाद्य गतिर्ममायम् ॥
‘मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण कुरूप हों या सुन्दर-शिरोमणि हों, गुणहीन हों या गुणियों में श्रेष्ठ हों, मेरे प्रति द्वेष रखते हों या करुणासिन्धु-रूप से कृपा करते हों, वे चाहे जैसे हों, मेरी तो वे ही एकमात्र गति हैं ।’
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्मर्महतं करोतु वा ।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः ॥ (शिक्षाष्टक ८)
‘वे चाहे मुझे हृदय से लगा लें या चरणों में लिपटे हुए मुझे पैरोंतले रौंद डालें अथवा दर्शन न देकर मर्माहत ही करें । वे परम स्वतन्त्र श्रीकृष्ण जैसा चाहें, वैसा करें, मेरे तो वे ही प्राणनाथ हैं, दूसरा कोई नहीं ।’
* पति तो परतः है, पर भगवान् स्वतः हैं । भगवान् स्वतः सबके परमपति हैं‒‘पतिं पतीनां परमम्’ (श्वेताश्वतर○ ६ । ७) ।
'सत्य की खोज' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 1019, विषय- योग ( कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग ), पृष्ठ-संख्या- ३९-४१, गीताप्रेस गोरखपुर
ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज


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